जगदीशचंद्र माथुर का जीवन परिचय
नाम :- जगदीश चन्द्र माथुर
जन्म :- 16 जुलाई 1917
निधन :- 14 मई 1978
जन्म-स्थान :- शाहजहाँपुर, उत्तर प्रदेश
शिक्षा :- एम० ए० (अंग्रेजी), इलाहाबाद विश्वविद्यालय । 1941 में आई० सी० एस० परीक्षा उत्तीर्ण । प्रशिक्षण के लिए अमेरिका गए और उसके बाद बिहार में शिक्षा सचिव हुए।
कार्य :- सन् 1944 में बिहार के सुप्रसिद्ध सांस्कृतिक उत्सव वैशाली महोत्सव का बीजारोपण किया । ऑल इंडिया रेडियो में महानिदेशक रहे, फिर सूचना और प्रसारण मंत्रालय में हिंदी सलाहकार के पद पर भी कार्य किया । हार्वर्ड विश्वविद्यालय के विजिटिंग फेलो रहने के अतिरिक्त अन्य अनेक महत्वपूर्ण कार्यों से जुड़े थे।
सम्मान :- विद्या वारिधि की उपाधि से विभूषित, कालिदास अवार्ड और बिहार राजभाषा पुरस्कार से सम्मानित ।
कृतियाँ :- 1936 में प्रथम एकांकी ‘मेरी बांसुरी’ का मंचन व ‘सरस्वती’ में प्रकाशन । पाँच एकांकी नाटकों का संग्रह ‘भोर का नारा’ 1946 में प्रकाशित । इसके बाद ‘ओ मेरे सपने’ (1950), ‘मेरे श्रेष्ठ रंग एकांकी’, ‘कोणार्क’ (1951), ‘बंदी’ (1954), ‘शारदीया’ (1959), ‘पहला राजा’ (1969), ‘दशरथ नंदन’ (1974) ‘कुंवर सिंह की टेक’ (1954) और ‘गगन सवारी’ (1958) के अलावा दो कठपुतली नाटक भी लिखें। ‘दस तस्वीरें’ और ‘जिन्होंने जीना जाना’ में रेखाचित्र और संस्मरण हैं। ‘परंपराशील नाट्य’ (1960) उनकी समीक्षा दृष्टि का परिचायक है। ‘बहुजन संप्रेषण के माध्यम जनसंचार पर विशिष्ट पुस्तक और ‘बोलते क्षण’ निबंध संग्रह है।
Jagdish Chandra Mathur ka Jivani
जगदीश चन्द्र माथुर एक प्रतिभाशाली लेखक, नाटक कार, संस्कृति कर्मी थे| उनका कार्य क्षेत्र बिहार था और वे साहित्य संस्कृति के संसार में बिहार की ही विशिष्ट प्रतिभा के रूप में जाने जाते थे| इतिहार संस्कृति परम्परा और लोकवार्ता की भूमिका उनके दृष्टिकोण के आधार भुत थी|
नाटक और उसके बहुविध शास्त्री एव लोक रूप हमेशा उनके आकर्षण के केंद्र में रहे| उनके नाट्यलेखन में रंगमंच की कल्पनाशील सक्रीय चेतन सहमती थी | इसका प्रमाण उनकी छोटी बड़ी तमाम नाट्य कृतिया है जो मंचन और अभिनेयता की दृष्टी से सफल मानी जाती है|
श्री माथुर के लेखन में रचना भूमि की दायरा आपेक्षिक रूप से सिमित और छोटी है, उसमें पर्यवेक्षण और अनुभव की शायद न्यूनता भी हु जिसे वे आधायन कल्पना आदि के द्वारा पूरा करते है| किन्तु उनके साहित्य में संकिनता कही नहीं आने पाई| इसके बदले विस्मयजनक रूप में एक संवेदंशील उदार दृष्टिकोण उनके लेखन में प्रकट होता है और परिकृष्ट रूचि के इस लेखक के साहित्य को उचाई प्रदान करता है|
श्री माथुर ने लिखन प्राय चौथे दशक में शुरू कर दिया था किन्तु उन्हें एक मनस्वी लेखक के रूप में अपनी पहचान नेहरु युग में बनाई उनके लेखन के बहुलांश पर नेहारुयुग की कल्पनाशीलता, नवनिर्माण चेतना तथा आधुनिक बैज्ञानिक प्रिध्रिष्टि की क्षाप है|