Namvar Singh Biography in Hindi, नामवर सिंह का जीवन परिचय ,इतिहास , शिक्षा, कहानी ,कविताये ,माता-पिता , विशिष्ट अभिरुचि, परिवार (Namvar Singh ki jivani, history ,Age, Height, Father , family ,Career)
Namvar Singh Biography in Hindi
पूरा नाम | नामवर सिंह |
जन्म | 28 जुलाई 1927 |
निधन | 19 फरवरी 2019 |
जन्म-स्थान | जीअनपुर, वाराणसी, उत्तर प्रदेश । |
माता-पिता | वागेश्वरी देवी एवं नागर सिंह (एक शिक्षक)। |
शिक्षा |
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वृति | 1953 में कांशी हिंदू विश्वविद्यालय में अस्थाई व्याख्याता। 1959-1960 में सागर विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर। 1960-65 तक बनारस में रहकर स्वतंत्र लेखन। ‘जनयुग’ (साप्ताहिक), दिल्ली में संपादक और राजकमल प्रकाशन में साहित्य सलाहकार भी रहे।
1967 से ‘आलोचना’ त्रैमासिक का संपादन, 1970 में जोधपुर विश्वविद्यालय, राजस्थान में हिंदी विभाग के अध्यक्ष पद पर. प्रोफेसर के रूप में नियुक्त, 1974 में कुछ समय तक कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी हिंदी विद्यापीठ, आगरा के निदेशक, 1974 में ही जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली के भारतीय भाषा केंद्र में हिंदी के प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति, 1987 में जे० एन० यू० से सेवामुक्ति । पुनः अगले पाँच वर्षों के लिए वहीं पुनर्नियुक्ति । 1993-96 तक राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन के अध्यक्ष । संप्रति : ‘आलोचना’ त्रैमासिक के प्रधान संपादक । |
सम्मान | 1971 में ‘कविता के नए प्रतिमान’. पर साहित्य अकादमी पुरस्कार। |
कृतियाँ | बकलम खुद (व्यक्ति व्यंजक ललित निबंध), हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योग, आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ, छायावाद, पृथ्वीराज रासो की भाषा, इतिहास और आलोचना,
कहानी : नई कहानी, कविता के नए प्रतिमान, दूसरी परंपरा की खोज, वाद विवाद संवाद (आलोचना), कहना न होगा (साक्षात्कारों का संग्रह), आलोचक के मुख से (व्याख्यानों का संग्रह) एवं अनेक संपादित पुस्तकें। |
नामवर सिंह का जीवन परिचय
डॉ. नामवर सिंह हिंदी आलोचना की एक शिखर प्रतिभा हैं जिनका विकास बीसवीं शती के उत्तरार्ध में हुआ। स्वतंत्रता के बाद की उत्तरशती में हिंदी भाषा और साहित्य में एक अभिनव उत्कर्ष और उभार आया जिसे सामान्यतः लोकप्रतिबद्ध यथार्थवाद के रूप में पहचाना जा सकता है।
आलोचना के क्षेत्र में इस उत्कर्ष और उभार को नामवर सिंह के साहित्य में लक्षित किया जा सकता है । नामवर सिंह की आलोचना में गहरी ऐतिहासिक अंतर्दृष्टि, परंपरा के रचनात्मक तंतुओं की पहचान एवं सार-सहेज, सूक्ष्म समयबोध और लोकनिष्ठा के साथ-साथ साहित्य-कृतियों में रूप एवं अंतर्वस्तु की मार्मिक समझ दिखाई पड़ती है।
साहित्यिक कृतियाँ, संरचनाएँ और प्रवृत्तियाँ गणित के फॉर्मूलों की तरह सहज और सपाट नहीं होतीं। उनमें समाज, व्यक्ति या इतिहास के तथ्य लेखकीय मानस में आभ्यंतरीकृत होकर बहुत कुछ बदल जाते हैं तथा एक जटिल या संश्लिष्ट रूप धारण कर लेते हैं। स्वभावतः आलोचक में सामान्य प्रबुद्ध या जागरूक पत्रकार अथवा शास्त्रीय विद्वान की तुलना में एक विशेष प्रकार की अभिज्ञता, सहृदयता और कल्पनाशील बौद्धिक निपुणता वांछित होती है ।
नामवर सिंह में ये खूबियाँ बदस्तूर हैं । आलोचक में संग्रह और त्याग का एक नित्य चेतन विवेक होना चाहिए और साथ ही सहृदय सहानुभूति का नैसर्गिक गुण भी । कहना न होगा कि नामवर सिंह में ये विशेषताएँ अपने निखरे हुए रूप में पाई जाती हैं । हृदय और बुद्धि का आलोचनात्मक तनाव भरा द्वंद्वात्मक संतुलन उनकी आलोचनात्मक दृष्टि की आधारभूत विशेषता है
नामवर सिंह का अध्ययन विस्तृत और गहन है । साहित्य के अतिरिक्त इतिहास, दर्शन, राजनीति, समाजशास्त्र आदि अनेक विषयों का अंतरानुशासनात्मक अध्ययन नामवर सिंह ने किया है । साहित्य, भाषाशास्त्र, काव्यशास्त्र, पाश्चात्य आलोचना आदि विषय तो सीधे उनकी अभिरुचि और लेखन कर्म के अंग ही हैं ।
नामवर सिंह पेशे से हिंदी प्राध्यापक रहे हैं, और वे देश के शीर्षस्थ हिंदी प्रोफेसर के रूप में प्रतिष्ठा अर्जित कर चुके हैं । साहित्य के छात्र और आलोचक के रूप में वे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शिष्य रह चुके हैं । द्विवेदी जी स्वयं रवींद्रनाथ के संसर्ग में विश्वभारती (शांति निकेतन) में हिंदी के आचार्य रह चुके थे । इस तरह आलोचना के क्षेत्र में रवींद्रनाथ ठाकुर और हजारी प्रसाद द्विवेदी की विरासत डॉ० नामवर सिंह को प्राप्त हुई, जिसे वे ‘दूसरी परंपरा’ कहते रहे हैं । नामवर सिंह अपने गुरु द्विवेदी जी की तरह ही एक ओजस्वी और प्रभावशाली वक्ता के रूप में अंतरराष्ट्रीय यश अर्जित कर चुके हैं ।
नामवर सिंह को हिंदी आलोचना को एक लालित्यपूर्ण सर्जनात्मक भाषा और मुहावरा देने का श्रेय प्राप्त है। उनकी पहचान हिंदी के आलोचकों की गौरवपूर्ण परंपरा की एक अपरिहार्य कड़ी के रूप में की गई है । वे मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित प्रगतिशील आधुनिक आलोचक के रूप में आज भी अपनी जीवंत उपस्थिति बनाए हुए हैं ।
नामवर सिंह की समीक्षा तथा सैद्धांतिक व्याख्या में रचनात्मक साहित्य जैसा लालित्य है। लगता है कोई ललित गद्य पढ़ रहे हैं।
आमतौर पर समीक्षा की भाषा शुष्क और उबाऊ होती है। पर नामवर जी की भाषा और शैली बहुत ही प्रभावशाली है। सहज ढलान है उनके लेखन में।
सीढ़ियाँ चढ़ना या उतरना नहीं पड़ता। वे मुहावरों का अच्छा प्रयोग करते हैं। संबोधन पद्धति से तर्क को जीवंत बनाते हैं। उनकी भाषा में विलक्षण “लुसीडिटी’ है। कटाक्ष है, व्यंग्योक्ति है, वक्रोक्ति है, ब्याज स्तुति और ब्याज निंदा है और ‘विद्’ है। – हरिशंकर परसाई